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लिट्टी-चोखा खाने वाला ये बिहारी बाबू तो निकला वॉरेन बफेट से भी बड़ा खिलाड़ी, 70 गुना कर डाला पैसा
INTRODUCTION अनिल अग्रवाल ने 22 साल पहले हिन्दुस्तान ज़िंक में 1,000 करोड़ रुपये इनवेस्ट किए थे, जो अब 71,000 करोड़ हो गए हैं. वेदांता के फाउंडर अग्रवाल ने 19 साल की उम्र में स्क्रैप ट्रेडिंग से शुरुआत की थी. उनकी ये कहानी इस बात की सबूत है कि आपका निवेश बढ़ता है, मगर समय लेता है. भारत में एक देसी कहावत काफी प्रचलित है- घर का जोगी जोगिया, बाहर का जोगी सिद्ध. इसी कहावत के तर्ज पर जब भी हम बड़े निवेशकों की बात करते हैं तो सबसे पहले वॉरेन बफेट का नाम लेते हैं. सही भी है, क्योंकि ‘ओमाहा के ओरेकल’ कहे जाने वाले बफेट ने 11 साल की उम्र में लगभग 120 डॉलर से निवेश शुरू किया था, और आज उनकी कुल संपत्ति लगभग 115 अरब डॉलर है. यह काम आसान नहीं है. इसी तरह, भारत के वॉरेन बफेट कहे जाने वाले राकेश झुनझुनवाला ने भी केवल 5000 रुपये से निवेश की शुरुआत की और अरबों की संपत्ति बनाई. लेकिन आज जिस शख्स की कहानी हम आपको बता रहे हैं, उसने भी निवेश की दुनिया में जो किया है, वह आम बात नहीं है.
वॉरेन बफेट से तुलना तुलना करें तो वॉरेन बफेट की कंपनी ने इसी समय में 20 फीसदी का रिटर्न दिया, जबकि S&P 500 ने सिर्फ 10 फीसदी. बफे का फोकस हमेशा अंडरवैल्यूड कंपनियों को खरीदकर उन्हें बेहतर बनाने पर रहा है. अनिल अग्रवाल का तरीका भी कुछ ऐसा ही है. वो सस्ती कंपनियां खरीदते हैं, उनकी लागत घटाने के लिए बैकवर्ड इंटिग्रेशन करते हैं, और फिर उन्हें बढ़ने में मदद करते हैं. अनिल अग्रवाल की शुरुआत 1980 के दशक में स्टेरलाइट इंडस्ट्रीज़ (Sterlite Industries) से हुई, जो जेली-फिल्ड केबल्स बनाती थी. बाद में उन्होंने कॉपर प्रोडक्शन शुरू किया, क्योंकि वही केबल बनाने का मुख्य मैटेरियल था. 1995 में उन्होंने घाटे में चल रही मद्रास एलुमिनियम (Madras Aluminium) को खरीदा, और 2001 में भारत सरकार के विनिवेश कार्यक्रम में हिस्सा लेकर BALCO की 51 फीसदी स्टेक खरीदा.
19 साल की उम्र में कूदे स्क्रैप ट्रेडिंग में अनिल अग्रवाल ने अपना बिज़नेस करियर 19 साल की उम्र में स्क्रैप ट्रेडिंग से शुरू किया था. 22 की उम्र में उन्होंने शमशेर स्टेरलिंग (Shamsher Sterling) नाम की कंपनी 16 लाख रुपये में खरीदी थी. इसमें उन्होंने दोस्तों, परिवार और बैंकों से उधार लिया था. यहीं से उन्हें मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री की असली चुनौतियों का पता चला, जैसे कि वर्किंग कैपिटल मैनेज करना, सैलरी देना, और कच्चे माल के प्राइस के उतार-चढ़ाव से जूझना. इन कठिनाइयों ने उन्हें मजबूत बनाया. उन्होंने मेडिटेशन, आत्मविश्वास और धैर्य के बल पर अपने बिज़नेस को चलाया. फिर 1980 के दशक में उन्होंने केबल बिज़नेस में कदम रखा और देश का पहला कॉपर स्मेल्टर भी बनाया. जैसे-जैसे वेदांता का बिज़नेस बढ़ा, वैसे-वैसे उसका कर्ज भी बढ़ता गया. आज कंपनी पर कुल 75,000 करोड़ रुपये का कर्ज है. कंपनी हिन्दुस्तान ज़िंक से मिलने वाले डिविडेंड का इस्तेमाल इस कर्ज को कम करने के लिए कर रही है.
डिविडेंड अच्छा, तो चिंता की क्या बात? हालांकि डिविडेंड अच्छा मिल रहा है, लेकिन एक्सपर्ट्स सतर्क रहने की सलाह दे रहे हैं. इकॉनमिक्स टाइम्स ने निखिल गांगिल (Nikhil Gangil) नाम के एक इनवेस्टर के हवाले से बताया कि वेदांता के प्रमोटर के सारे शेयर गिरवी हैं और एक साल में रिटेल इनवेस्टर्स की संख्या 9 लाख से 20 लाख हो गई है- जो रिस्क और गवर्नेंस के लिहाज से चिंता की बात है. आज अनिल अग्रवाल का फोकस वेदांता की कैपिटल एफिशिएंसी को बेहतर करने पर है. वॉरेन बफेट ने एक बार लिखा था, “कर्ज, वेल्थ को धीरे-धीरे खत्म करने का काम करता है.” वेदांता का डेब्ट-टू-इक्विटी रेशियो 1.81 है, जबकि बफेट की कंपनी का सिर्फ 0.91. यानी वेदांता को अब अपना कर्ज घटाने की दिशा में काम करना होगा.
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