230 likes | 550 Views
महामारी के रूप. एक फूल की चाह. सियारामशरण गुप्त. पाठ प्रवेश.
E N D
एक फूल की चाह सियारामशरण गुप्त
पाठ प्रवेश ‘ एक फूल की चाह ’ छुआछूत की समस्या से संबंधित कविता है। महामारी के दौरान एक अछूत बालिका उसकी चपेट में आ जाती है। वह अपने जीवन की अंतिम साँसे ले रही है। वह अपने माता- पिता से कहती है कि वे उसे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दें । पिता असमंजस में है कि वह मंदिर में कैसे जाए। मंदिर के पुजारी उसे अछूत समझते हैं और मंदिर में प्रवेश के योग्य नहीं समझते। फिर भी बच्ची का पिता अपनी बच्ची की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर में जाता है। वह दीप और पुष्प अर्पित करता है और फूल लेकर लौटने लगता है। बच्ची के पास जने की जल्दी में वह पुजारी से प्रसाद लेना भूल जाता है। इससे लोग उसे पहचान जाते हैं। वे उस पर आरोप लगाते हैं कि उसने वर्षों से बनाई हुई मंदिर की पवित्रता नष्ट कर दी। वह कहता है कि उनकी देवी की महिमा के सामने उनका कलुष कुछ भी नहीं है। परंतु मंदिर के पुजारी तथा अन्य लोग उसे थप्पड़-मुक्कों से पीट-पीटकर बाहर कर देते हैं। इसी मार-पीट में देवीक ा फूल भी उसके हाथों से छूत जाता है। भक्तजन उसे न्यायालय ले जाते हैं। न्यायालय उसे सात दिन की सज़ा सुनाता है। सात दिन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख मिलती है। इस प्रकार वह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणासन्न बेटी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाता। इस मार्मिक प्रसंग को उठाकर कवि पाठकों को यह कहना चाहता है कि छुआछूत की कुप्रथा मानव-जाति पर कलंक है। यह मानवता के प्रति अपराध है।
उद्वेलित कर अश्रु – राशियाँ , हृदय – चिताएँ धधकाकर , महा महामारी प्रचंड हो फैल रही थी इधर-उधर। क्षीण – कंठ मृतवत्साओं का करुण रुदन दुर्दांत नितांत , भरे हुए था निज कृश रव में हाहाकार अपार अशांत। कवि महामारी की भयंकरता का चित्रण करता हुआ कहता है कि – चारों ओर एक भयंकर महामारी फैल गई थी। उसके कारण पीडित लोगों की आँखों में आँसुओं की झड़ियाँ उमड़ आई थीं। उनके हृदय चिताओं की भाँति धधक उठे थे। सब लोग दुख के मारे बेचैन थे। अपने बच्चों को मॄत देखकर माताओं के कंठ से अत्यंत दुर्बल स्वर में करुण रुदन निकल रहा था। वातावरण बहुत हृदय विदारक था। सब ओर अत्यधिक व्याकुल कर देने वाला हाहाकार मचा हुआ था। माताएँ दुर्बल स्वर में रुदन मचा रही थीं।
बहुत रोकता था सुखिया को , ‘ न जा खेलने को बाहर ’ , नहीं खेलना रुकता उसका नहीं ठहरती वह पल भर । मेरा हृदय काँप उठता था , बाहर गई निहार उसे ; यही मनाता था कि बचा लूँ किसी भाँति इस बार उसे। सुखिया का पिता कहता है – मैं अपनी बेटी सुखिया को बाहर जाकर खेलने से मना करता था। मैं बार-बार कहता था – ‘ बेटी , बाहर खेलने मत जा।’ परंतु वह बहुत चंचल और हठीली थी। उसका खेलना नहीं रुकता था। वह पल भर के लिए भी घर में नहीं रुकती थी। मैं उसकी इस चंचलता को देखकर भयभीत हो उठता था। मेरा दिल काँप उठता था। मैं मन में हमेशा यही कामना करता था कि किसी तरह अपनी बेटी सुखिया को महामारी की चपेट में आने से बचा लूँ।
भीतर जो डर था छिपाए , हाय! वही बाहर आया। एक दिवस सुखिया के तनु को ताप – तप्त उसने पाया। ज्वर में विह्वल हो बोली वह , क्या जानूँ किस दर से दर , मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर। सुखिया का पिता कहता है - अफ़सोस ! मेरे मन में यही डर था कि कहीं मेरी बिटिया सुखिया को यह महामारी न लग जाए। मई इसीसे डर रहा था। वह डर आखिकार सच हो गया। एक दिन मैंने देखा कि सुखिया का शरीर बीमीरी के कारण जल रहा है। वह बुखार से पीड़ित होकर और न जाने किस अनजाने भय से भयभीत होकर मुझसे कहने लगी – पिताजी ! मुझे माँ भगवती के मंदिर के प्रसाद का एक फूल लाकर दो।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया , शिथिल हुए अवयव सारे , बैठा था नव-नव उपाय की चिंता में मैं मनमारे। जान सका न प्रभात सजग से हुई अलस कब दोपहरी , स्वर्ण – घनों में कब रवि डूबा , कब आई संध्या गहरी। सुखिया का पिता महामारी से ग्रस्त सुखिया की बीमारी बढ़ने का वर्णन करता हुआ कहता कि धीरे-धीरे महामारी का प्रभाव बढ़ने लगा। सुखिया का गला घुटने लगा। आवाज़ मंद होने लगी। शरीर के सारे अंग ढीले पड़ने लगे। मैं चिंता में डूबा हुआ निराश मन से उसे ठीक करने के नए-नए उपाय सोचने लगा। इस चिंता में मैं इतना डूब गया कि मुझे पता ही नहीं चल सका कि कब प्रात:काल की हलचल समाप्त हुई और आलस्य भरी दोपहरी आ गई। कब सूरज सुनहरे बादलों में डूब गया और कब गहरी साँझ हो गई।
सभी ओर दिखलाई दी बस , अंधकार की ही छाया , छोटी – सी बच्ची को ग्रसने कितना बड़ा तिमिर आया ! ऊपर विस्तृत महाकाश में जलते – से अंगारों से, झुलसी – सी जाती थी आँखें जगमग जगते तारों से। सुखिया का पिता कहता है कि सुखिया की बीमारी के कारण मेरे मन में ऐसी घोर निराशा छा गई कि मुझे चारों ओर अंधेरे की ही छाया दिखाई देने लगी मुझे लगा कि मेरी नन्हीं – सी बेटी को निगलने के लिए इतना बड़ा अँधेरा चला आ रहा है। जिस प्रकार खुले आकाश में जलते हुए अंगारों के समान तारे जगमगाते रहते हैं , उसी भाँति सुखिया की आँखें ज्वर के कारण जली जाती थीं। वह बेहेद बीमीर थी।
देख रहा था – जो सुस्थिर हो नहीं बैठती थी क्षण - भर , हाय ! वही चुपचाप पड़ी थी अटल शांति – सी धारण कर। सुनना वही चाहता था मैं उसे स्वयं ही उकसाकर – मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर !
जैसे शैल - शिखर के ऊपर मंदिर था विस्तीर्ण विशाल ; स्वर्ण – कलश सरसिज विहसित थे पाकर समुदित रवि-कर-जाल। दीप-धूप से आमोदित था। मंदिर का आँगन सारा ; गूँज रही थी भीतर-बाहर मुखरित उत्सव की धारा। ऊँचे पर्वत की चोटी के ऊपर एक विस्तॄत और विशाल मंदिर खड़ा था। उसका कलश स्वर्ण से बना था। उस पर सूरज की किरणें सुशोभित हो रही थीं। किरणों से जगमगाता हुआ कलश ऐसा खिला-खिला प्रतीत होता था जैसे कि रश्मियों को पाकर कमल का फूल खिल उठा हो। मंदिर का सारा आँगन दीपों की रोशनी और धूप की सुगंध से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर – सब ओर उत्सव जैसा उल्लासमय वातावरण था।
भक्त-वृंद मृदु - मधुर कंठ से गाते थे सभक्ति मुद – मय , - ‘पतित–तारिणी पाप–हारिणी , माता ,तेरी जय–जय – जय ’ – मेरे मुख से भी निकला , बिना बढ़े ही मैं आगे को जाने किस बल से ढिकला ! मंदिर में भक्तों की टोली बड़ी मधुर और कोमल आवाज़ में आनंद और भक्ति से भरा हुआ यह जयगान गा रही थी – ‘ हे पतितों का उद्धार करने वाली देवी ! हे पापों को नष्ट करने वाली देवी ! हम तेरी जय-जयकार करते हैं। ’ सुखिया के पिता के मुँह से भी जयगान निकल पड़ा। उसने दोहराया – ‘ हे पतितों का उद्धार करने वाली देवी , तुम्हारी जय हो। ’ यह कहने के साथ ही न जाने उसमें कौन-सी शक्ति आ गई , जिसने उसे ठेलकर पुजारी के सामने खड़ा कर दिया। वह अनायास ही पूजा – स्थल के सामने पहुँच गया।
मेरे दीप – फूल लेकर वे अंबा को अर्पित करके दिया पुजारी ने प्रसाद जब आगे को अंजलि भर के , भूल गया उसका लेना झट , परम लाभ –सा पाकर मैं। सोचा – बेटी को माँ के ये पुण्य – पुष्प दूँ जाकर मैं।
सिंह पौर तक भी आँगन से नहीं पहुँचने मैं पाया , सहसा यह सुन पड़ा कि – “ कैसे यह अछूत भीतर आया ? पकड़ो , देखो भाग न पावे , बना धूर्त यह है कैसा ; साफ़ – स्वच्छ परिधान किए है , भले मानुषों के जैसा ! पापी ने मंदिर में घुसकर किया अनर्थ बड़ा भारी ; कलुषित कर दी है मंदिर की चिरकालिक शुचिता सारी।” सुखिया का पिता देवी के मंदिर में फूल लेने के लिए जाता है तो पहचान लिया जाता है। तब वह अपनी आपबीती सुनाते हुए कहता है – मैं पूजा करके मंदिर के मुख्य द्वार तक भी न पहुँचा था कि अचानक मुझे यह स्वर सुनाई पड़ा – ‘ यह अछूत मंदिर के अंदर कैसे आया ? इसे पकड़ो। सावधान रहो। कहीं यह दुष्ट भाग न जाए। यह कैसा ठग है ! ऊपर से साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर भले आदमियों जैसा रूप बनाए हुए है। परंतु है महापापी और नीच। इस पारी ने मंदिर में घुसकर बहुत बड़ा पाप कर दिया है।इसने इतने लंबे समय से बनाई गई मंदिर की पवित्रता को नष्ट कर दिया है। इसके प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो गया है।
ऐं , क्या मेरा कलुष बड़ा है देवी की गरिमा से भी ; किसी बात में हूँ मैं आगे माता की महिमा के भी ? माँ के भक्त हुए तुम कैसे , करके यह विचार खोटा ? माँ के सम्मुख ही माँ का तुम गौरव करते हो छोटा ! सुखिया का पिता मंदिर में पूजा का फूल लेने गए तो भक्तों ने उन्हें अछूत कहकर पकड़ लिया । तब सुखिया के पिता उन भक्तों से बोले – यह तुम क्या कहते हो ! मेरे मंदिर में आने से देवी का मंदिर कैसे अपवित्र हो गया ? क्या मेरे पाप तुम्हारे देवी की महिमा से भी बढ़कर हैं? क्या मेरे मैल में तुम्हारी देवी के गौरव को नष्ट करने की शक्ति है ? क्या मैं किसी बात में तुम्हारे देवी से भी बढ़कर हूँ ? नहीं , यह संभव नहीं है। अरे दुष्ट ! तुम ऐसा तुच्छ विचार करके भी अपने आप को माँ के भक्त कहते हो।तुम्हें ल्ज्जा आनी चाहिए। तुम माँ की मूर्ति के सामने ही माँ के गौरव को नष्ट कर रहे हो। माँ कभी छूत-अछूत नहीं मानती। वह तो सबकी माँ है।
कुछ न सुना भक्तों ने , झट से मुझे घेरकर पकड़ लिया ; मार-मारकर मुक्के – घूँसे धम – से नीचे गिरा दिया ! मेरे हाथों से प्रसाद भी बिखर गया हा ! सबका सब , हाय ! अभागी बेटी तुझ तक कैसे पहुँच सके यह अब। सुखिया का पिता अपनी बेटी की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर में पूजा का फूल लेने पहुँचा तो भक्तों ने उसे अछूत कहकर पकड़ लिया। उसने उनसे प्रश्न पूछा कि क्या उसका कलुष देवी माँ की महिमा से भी बढ़कर है। इसके बाद सुखिया का पिता अपनी आपबीती सुनते हुए कहता है – देवी के उन भक्तों ने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने तुरंत मुझे चारों ओर से घेरकर पकड़ लिया। फिर उन्होंने मुझे मुक्के – घूँसे मार – मारकर नीचे गिरा दिया। उस मारपीट में मेरे हाथों से देवी माँ का प्रसाद भी बिखर गया। मैं अपनी बेटी को याद करने लगा – हाय ! अभागी बेटी ! देवी का यह प्रसाद तुझ तक कैसे पहुँचाऊँ। तू कितनी अभागी है।
न्यायालय ले गए मुझे वे , सात दिवस का दंद – विधान मुझको हुआ ; हुआ था मुझसे देवी का महान अपमान ! मैंने स्वीकृत किया दंड वह शीश झुकाकर चुप ही रह ; उस असीम अभियोग दोष का क्या उत्तर देता , क्या कह ? सात रोज़ ही रहा जेल में या कि वहाँ सदियाँ बीतीं , अविश्रांत बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं।
दंड भोगकर जब मैं छूटा , पैर न उठते थे घर को ; पीछे ठेल रहा था कोई भय – जर्जर तनु पंजर को। पहले की – सी लेने मुझको नहीं दौड़कर आई वह ; उलझी हुई खेल में ही हा ! अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही गया दौड़ता हुआ वहाँ , मेरे परिचित बंधु प्रथम ही फूँक चुके थे उसे जहाँ। बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर छाती धधक उठी मेरी , हाय ! फूल – सी कोमल बच्ची हुई राख की थी ढेरी !
अंतिम बार गोद में बेटी , तुझको ले न सका मैं हा ! एक फूल माँ का प्रसाद भी तुझको दे न सका मैं हा !
प्रस्तुति आर.बाबूराज जैन स्नातक शिक्षक ज.न.वि.पुदुच्चेरी धन्यवाद !